ज़माने की हवाओं ने ये कैसा कर दिया मुझको ।
कि मेरा साया ही देखो नहीं पहचानता मुझको ।
तही दस्ती ने ज़ेबों को कुछ इतना कर दिया वीरां ।
फक़ीरे शहर तक देता नहीं अब तो दोआ मुझको ।
ये माना तेरी राहों में बिछी हैं हर तरफ कलियॉ ।
मैं पत्थर ही सही लेकिन न रस्ते से हटा मुझको ।
मेरी किरनों की आहट आशियॉ पर बार थी इतनी
चिरागे रह गुज़र था मैं बुझा कर रख दिया मुझको।
तसव्वुर से भी मिटती जा रही है चाप यादों की
करेगा दूर कितना मंज़िलो से फासला मुझको ।
“हसन” अपना लहू मुझको ही ख़ुद पीना पड़े लेकिन
बदलना है ब-हर सूरत निज़ामे मयकदा मुझको ।
- शाएर -
मरहूम हाजी हसन अली “हसन”
Sunday, July 23, 2006
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